कब्बू

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Photo Source: BBC

 

मैं जितनी बार महादेवी वर्मा की कहानी ‘गिल्लू’ पढ़ता हूँ, कुछ करने का मन करता है | यह कहानी नहीं है, बल्कि औपचारिकता से कहें तो एक मार्मिक संस्मरण है, किन्तु जितनी बार भी पढ़ो, सच नहीं लगता | एक दिन मैं सुबह उठा, और एक गहरे अफ़सोस में डूब गया | पता नहीं क्यों मैंने अपना फ़ोन खोला और बोलकर गिल्लू की कहानी अपनी माँ को सुना डाली | रात ही को मैंने ट्यूशन में कई सालों बाद गिल्लू को पढ़ा था, और पाठ की आत्मा की, बोतल की दीवारों पर टक-टक और मुंह पर चिक-चिक सुबह ही सुनाई दी | कहानी पढ़ने के बाद भी चैन नहीं मिला, ऐसा लगा जैसे गिल्लू फिर कहीं मरणासन्न पड़ा है | पर मैं अपने ऊपर यह बीड़ा उठाने की गलती नहीं करूँगा, मेरे पास न तो दर्दनाशक है, न ही रुई की बत्तियां |

मेरे ही जैसे कई खुद को दार्शनिकता से अभिजात मानने वाले, अक्सर कितने की गिल्लुओं, कल्लुओं, पिल्लुओं और कब्बुओं को पत्थर मारकर डरा देने को बौद्धिक पराक्रम समझते हैं | खुद महकते हुए हम ज़रा सी बदबू नहीं सह सकते, जिस दिन नहाये हों उस दिन पसीना नहीं सह सकते | गिल्लू केवल जानवर थोड़े है | हमारे वाद-विवाद में खलल न पड़े, इसलिए हम पूंजीवाद में ढके, मार्क्सवाद को सराहते हैं | अगर गिल्लू छज्जे से गिरा है, तो यह उसकी नियति है, वह मरता है, तो वह उसका प्रारब्ध है | कई साल पहले एक पड़ोसिन कहा करती थी, भिखारियों को पैसा देना उसकी अवज्ञा करना है | उसी की जिसने गिल्लू को भी बनाया है, शायद, या फिर शायद गिल्लू भी जनसँख्या का ही दोष है?

हम कुछ समय पहले अपने कॉलेज गए | हमें पासआउट हुए एक साल हुआ था | नैतिकता, आदर्शों और आचार पर हमारी हाँ में हाँ मेट्रो स्टेशन पर शुरू हुई और शायद शाम तक ख़त्म नहीं हुई | साहित्य पढ़कर हर ऐरा गैर अपने आप को सचमुच सोसाइटी का लेजिस्लेटर समझ लेता है | मैं तो अपने तो लेखक भी समझता हूँ | हम अपने पुराने क्लासरूम के सामने घूम ही रहे थे कि मेरा ध्यान अपने दोस्त की बेचैन नज़र पर गया | जितनी बार हम एक कमरे से सामने से गुज़रते, वह जल्दी से ऊपर देखता और हसरत से भारी हुई निगाह को हटा लेता | मैंने देखा, वहाँ एक कबूतर का बच्चा मरणासन्न ही पड़ा था | मुझे कोफ़्त सी हुई–मुझे डर लगा | अपने दोस्त की मिटटी जानते हुए मैं उसे आगे की ओर ले गया, जहाँ कब्बू की बू न थी | हमने अपनी चर्चा फिर एक बार शुरू की, और मेरा दोस्त, जो सहनशीलता और सभ्यता की मिसाल है, अपना ध्यान चर्चा पर लगाने की पूरी कोशिश करने लगा | लगभग बीस मिनट बाद जब मैं पूरी तरह आश्वस्त हो गया की खतरा टल चुका था और दोस्त के पास समय बर्बाद करने के लिए नहीं बचा था, हमने फिर वह गलियारा पकड़ा और घड़ी की ओर बार-बार देखना शुरू कर दिया | शाम हो रही थी और मौज का समय नहीं था |

हम ज्यों ही फिर पूर्वकथित कमरे के सामने पहुंचे, हमने देखा कब्बू नीचे आ गिरा था | हवा चली या न जाने क्या हुआ, दूर से टल जाने वाला खतरा अब प्रत्यक्ष पड़ा था | अगर वह कराह पता तो ज़रूर कराहता | उसकी चोंच निचुड़ी पड़ी थी और ऑंखें प्राण छोड़ चुकीं थीं | रोएँ देखकर ऐसा मालूम हो रहा था जैसे उसे भी पसीना आया होगा | गर्दन खुदा के हवाले थी और बीमारी की गंध से मुझे अत्यंत घृणा पैदा हो रही थी | यह गिलहरी का बच्चा नहीं था, यह घर-घर गुटर-गूं करते रहने वाले, आसानी से हाथ आ जाने वाले एक बेअक्ल पक्षी का बच्चा था | ये कब्बू था, जिसके नाम में न तो काव्य था और न ही मिठास | ये जगह-जगह गंदगी मचाता है और अक्सर रुग्णता की बदबू फैलाता है | यह दिखने में जितना बेरंग है, हाव-भाव में उतना ही जड़ और अनाड़ी है | बिल्ली देखते ही यह सबसे पहले आँखें बंद कर लेता है | इस नामाकूल में भला क्या दिलचस्पी थी मेरे दोस्त को, मुझे सोच-सोचकर ताज्जुब होने से ज़्यादा गुस्सा आया | मैं उसकी कर्तव्यपरायणता पर नाराज़ हो ही रहा था, कि उसने उस बीमारी में डूबे, जन्म-जन्मान्तर के पापी पक्षी को गोद सामान हथेली में उठा लिया और स्नेह से उसे निहारने लगा | मेरे दोस्त की आवाज़ में पिता का मर्म था, उस पिता का जो अपने बच्चों को खेल के मैदान में चोट लग जाने पर बहलाता है, उसके पसंदीदा खेल खेलता है और उसे चिढ़ाते हुए उसे बराबरी की उपाधियाँ देता है |

मैंने अपनी झुंझलाहट को व्यक्त नहीं किया | यह मुझमें एक ऐसा गुण है जो कभी-कभी मुझे गहरी विपत्तियों में तो डाल देता है, पर उससे भी ज़्यादा बार यह मेरे साथियों को ये नहीं पता चलने देता कि मैं कितना स्वार्थी हूँ | कमाल का पैराडॉक्स है | तो हम तुरंत कॉलेज से निकले, और मेरी चुप्पी को बड़ी सुविधा से मेरी रज़ामंदी समझ कर दोस्त ने उपचार केंद्र का मुख किया | कब्बू को भी गिल्लू कि ख्याति मिलनी थी कि नहीं? रास्ते भर दोस्त ने मेरी चिढ़ को अपने बचपन के पक्षी-लगाव के किस्से सुना-सुनकर मारा | कहाँ तो मैं बेचारा मास्टर्स कि प्रवेश परीक्षा पर टिप्स लेने टिप-टॉप होकर कॉलेज आया था, और कहाँ महाशय प्रकृति प्रेमी ने मेरी सब शेख़ी को कब्बू की क़ै में भिगो डाला! शाहदरा की टूटी-फूटी गलियों से होते हुए हम आख़िरकार वहां के एक चैरिटेबल अस्पताल पहुंचे | बाहर बैठे एक गार्ड ने हमें आश्चर्य से देखा और अंदर की ओर आदत से हो जाने वाला इशारा कर दिया | मुझे अंदर नहीं जाने दिया गया–शायद दिव्य अध्यादेश के तहत!

सीढ़ीओं पर चढ़ता हुआ भी मेरा दोस्त मुझे गार्ड के आदेश के विपरीत ऊपर आने का सहस देता रहा | अगर वो मुझे यहाँ तक ले आया था, तो क्या ये संभव था की वो मुझे यह नया अजूबा दिखाए बिना जाने देता? उसके प्रोत्साहनों में गार्ड की मनाहियाँ डूब गयीं और मुझ पर कब्बू के नए दोस्तों की कृपा हुई | अंदर जितने रंगों के चोटिल मुर्गे, चीलें, कबूतर, कौव्वे, और उनके और रिश्तेदार थे, उतनी ही गंधें और शोर था | उनकी फड़फ़ड़ाहटों में फटकार थी या स्वागत, ये मैं नहीं जानता | मैं यह जानता हूँ कि मैं अब भी बीड़ा नहीं उठा सकूंगा | मगर अब कब्बू या पिल्लू शायद मदद न माँगें |

 

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Prannay Pathak

I write commentaries on society and mundane short stories. Pursuing a masters now. Capricious writer.